निकले थे घर से जाने कलिसे की ओर,
क़दम चल पड़े ना जानें क्यों, कहीं ओर
अजनबी मंजिलें ओ मुक़ाम दिखे रहगुज़र,
कश्मकश दिल में यहाँ जाऊँ, या कही ओर
कई हसरतें, कई उम्मीदें, ख़यालात मेरे,
ख्वाबों की सिंम्त मुख़्तलिफ़,मैं किसी ओर
बोझल ये ज़िगर, करूँ इसे हलका किधर,
रिन्दे बुलाये, हम चल पड़े, मैकदे की ओर
बेख़ुदी बसें जहाँ, ना है तफ़ावुत जिधर,
पहूँचे आख़िर मक़ाम पे, ए साकी, तेरी ओर
कहाँ से आगाज़, कहाँ मआल ए सफ़र,
निकले थे ‘हया’ से फैसला किये, कलिसे की ओर
डॉ नम्रता कुलकर्णी
बेंगलुरू
२४/०४/१७
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